Sunday, April 28, 2024
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भारतेंदु हरिश्चंद्र साहित्यिक परिचय Bhartendu Harishchandra Biography

भारतेंदु हरिश्चंद्र साहित्यिक परिचय-हेलो दोस्तों में कोमल शर्मा आज की आर्टिकल में आपको भारतेन्दु हरिश्चंद्र के बारे में बताने जा रहे हु

भारतेंदु हरिश्चंद्र साहित्यिक परिचय- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का जन्म ९ सितम्बर, १८५० को काशी के एक प्रतिष्ठित वैश्य परिवार में हुआ।उनके पिता गोपालचंद्र एक अच्छे कवि थे और ‘गिरधरदास’उपनाम से कविता लिखा करते थे। १८५७ में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के समय उनकी आयु ७ वर्ष की होगी। ये दिन उनकी आँख खुलने के थे उनकी आँखें एक बार खुलीं तो बन्द नहीं हुईं। उनके पूर्वज अंग्रेज-भक्त थे, उनकी ही कृपा से धनवान हुये थे। हरिश्चंद्र पाँच वर्ष के थे तो माता की मृत्यु और दस वर्ष के थे तो पिता की मृत्यु हो गयी। इस प्रकार बचपन में ही माता-पिता के सुख से वंचित हो गये। विमाता ने खूब सताया। बचपन का सुख नहीं मिला था शिक्षा की व्यवस्था प्रथापालन के लिए होती रही। संवेदनशील व्यक्ति के नाते उनमें स्वतन्त्र रूप से देखने-सोचने-समझने की आदत का विकास होने लगा। पढ़ाई की विषय-वस्तु और पद्धति से उनका मन उखड़ता रहा। क्वींस कॉलेज, बनारस में प्रवेश लिया, तीन-चार वर्षों तक कॉलेज आते-जाते रहे पर यहाँ से मन बार-बार भागता रहा। स्मरण शक्ति तीव्र थी, ग्रहण क्षमता अद्भुत। इसलिए परीक्षाओं में उत्तीर्ण होते रहे। बनारस में उन दिनों अंग्रेजी पढ़े-लिखे और प्रसिद्ध लेखक – राजा शिवप्रसाद ‘सितारेहिन्द’ थे, भारतेन्दु शिष्य भाव से उनके यहाँ जाते। उन्हीं से अंग्रेजी सीखी। भारतेन्दु ने स्वाध्याय से संस्कृत, मराठी, बंगला, गुजराती, पंजाबी, उर्दू भाषाएँ सीख लीं।




भारतेन्दु हरिश्चंद्र का साहित्यिक परिचय क्या है

भारतेंदु हरिश्चंद्र साहित्यिक परिचय भारतेन्दु के वृहत साहित्यिक योगदान के कारण ही १८५७ से १९०० तक के काल को भारतेन्दु युग के नाम से जाना जाता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार,पंद्रह वर्ष की अवस्था से ही भारतेन्दु ने साहित्य सेवा प्रारम्भ कर दी थी। अठारह वर्ष की अवस्था में उन्होंने ‘कविवचनसुधा’ नामक पत्रिका निकाली, जिसमें उस समय के बड़े-बड़े विद्वानों की रचनाएं छपती थीं। वे बीस वर्ष की अवस्था में ऑनरेरी मैजिस्ट्रेट बनाए गए और आधुनिक हिन्दी साहित्य के जनक के रूप मे सम्मान मिला था उन्होंने 1868 में ‘कविवचनसुधा’, 1873 में ‘हरिश्चन्द्र मैगजीन’ और 1874 में स्त्री शिक्षा के लिए ‘बाला बोधिनी’ नामक पत्रिकाएँ निकालीं। साथ ही उनके समांतर साहित्यिक संस्थाएँ भी खड़ी कीं। वैष्णव भक्ति के प्रचार के लिए उन्होंने ‘तदीय समाज’ की स्थापना की थी। राजभक्ति प्रकट करते हुए भी, अपनी देशभक्ति की भावना के कारण उन्हें अंग्रेजी हुकूमत का कोपभाजन बनना पड़ा। उनकी लोकप्रियता से प्रभावित होकर काशी के विद्वानों ने १८८० में उन्हें ‘भारतेंदु'(भारत का चंद्रमा) की उपाधि प्रदान की

भारतेन्दु हरिश्चंद्र की प्रमुख कृतियाँ

मौलिक नाटक –

  • वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति     (1873ई., प्रहसन)
  • सत्य हरिश्चन्द्र                        (1875,नाटक)
  • श्री चंद्रावली                          (1876, नाटिका)
  • विषस्य विषमौषधम्               ( भाण)
  • भारत दुर्दशा                        ( ब्रजरत्नदास के अनुसार, नाट्य रासक),
  • नीलदेवी                              (ऐतिहासिक गीति रूपक)।
  • अंधेर नगरी                          ( प्रहसन)
  • प्रेमजोगिनी                          (, प्रथम अंक में चार गर्भांक, नाटिका)
  • सती प्रताप                          (,अपूर्ण, केवल चार दृश्य, गीतिरूपक, बाबू राधाकृष्णदास ने पूर्ण किया





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अनूदित नाट्य रचनाएँ –

  • विद्यासुन्दर                 (नाटक, संस्कृत ‘चौरपंचाशिका’ के यतीन्द्रमोहन ठाकुर कृत बँगला संस्करण का हिंदी अनुवाद)
  • धनंजय विजय             ( व्यायोग, कांचन कवि कृत संस्कृत नाटक का अनुवाद)
  • कर्पूर मंजरी               ( सट्टक, राजशेखर कवि कृत प्राकृत नाटक का अनुवाद)
  • भारत जननी               (नाट्यगीत, बंगला की ‘भारतमाता’के हिंदी अनुवाद पर आधारित)
  • मुद्राराक्षस                 (विशाखदत्त के संस्कृत नाटक का अनुवाद)
  • दुर्लभ बंधु                 ( शेक्सपियर के ‘मर्चेंट ऑफ वेनिस’ का अनुवाद

निबंध संग्रह –

  • नाटक –
  • कालचक्र (जर्नल)
  • लेवी प्राण लेवी
  • भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है?
  • कश्मीर कुसुम
  • जातीय संगीत
  • संगीत सार
  • हिंदी भाषा
  • स्वर्ग में विचार सभा
  • कहानी  —         अद्भुत अपूर्व स्वप्न
  • यात्रा वृत्तान्त  —  सरयूपार की यात्रा  ,  लखनऊ
  • आत्मकथा  —    एक कहानी- कुछ आपबीती, कुछ जगबीती
  • उपन्यास  —      पूर्णप्रकाश  ,  चन्द्रप्रभा  ,  वर्ण्य विषय




भारतेन्दु हरिश्चंद्र की भाषा

भारतेंदु हरिश्चंद्र साहित्यिक परिचय-भारतेन्दु के समय में राजकाज और संभ्रांत वर्ग की भाषा फारसी थी। वहीं, अंग्रेजी का वर्चस्व भी बढ़ता जा रहा था। साहित्य में ब्रजभाषा का बोलबाला था। फारसी के प्रभाव वाली उर्दू भी चलन में आ गई थी। ऐसे समय में भारतेन्दु ने लोकभाषाओं और फारसी से मुक्त उर्दू के आधार पर खड़ी बोली का विकास किया। आज जो हिंदी हम लिखते-बोलते हैं, वह भारतेंदु की ही देन है। यही कारण है कि उन्हें आधुनिक हिंदी का जनक माना जाता है। केवल भाषा ही नहीं, साहित्य में उन्होंने नवीन आधुनिक चेतना का समावेश किया और साहित्य को ‘जन’ से जोड़ा।

भारतेंदु हरिश्चंद्र साहित्यिक परिचय-भारतेन्दु की रचनाधर्मिता में दोहरापन दिखता है। कविता जहां वे ब्रज भाषा में लिखते रहे, वहीं उन्होंने बाकी विधाओं में सफल हाथ खड़ी बोली में आजमाया। सही मायने में कहें तो भारतेंदु आधुनिक खड़ी बोली गद्य के उन्नायक हैं।भारतेन्दु जी के काव्य की भाषा प्रधानतः ब्रज भाषा है।


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भारतेन्दु जी की शैली

भारतेंदु जी के काव्य में निम्नलिखित शैलियों के दर्शन होते हैं –

  • रीति कालीन रसपूर्ण अलंकार शैली – शृंगारिक कविताओं में,
  • भावात्मक शैली – भक्ति के पदों में,
  • व्यंग्यात्मक शैली – समाज-सुधार की रचनाओं में,

भारतेन्दु जी के रस

भारतेंदु हरिश्चंद्र साहित्यिक परिचय भारतेंदु जी ने लगभग सभी रसों में कविता की है। शृंगार और शान्त रसों की प्रधानता है। शृंगार के दोनों पक्षों का भारतेंदु जी ने सुंदर वर्णन किया है। उनके काव्य में हास्य रस की भी अच्छी योजना मिलती है।भारतेंदु हरिश्चंद्र साहित्यिक परिचय




भारतेन्दु जी ने कितने छन्द का प्रयोग किया है

भारतेंदु हरिश्चंद्र साहित्यिक परिचय भारतेंदु जी ने अपने समय में प्रचलित प्रायः सभी छंदों को अपनाया है। उन्होंने केवल हिंदी के ही नहीं उर्दू, संस्कृत, बंगला भाषा के छंदों को भी स्थान दिया है। उनके काव्य में संस्कृत के वसंत तिलका, शार्दूल विक्रीड़ित, शालिनी आदि हिंदी के चौपाई, छप्पय, रोला, सोरठा, कुंडलियाँ, कवित्त, सवैया, घनाक्षरी आदि, बंगला के पयार तथा उर्दू के रेखता, ग़ज़ल छंदों का प्रयोग हुआ है। इनके अतिरिक्त भारतेंदु जी कजली, ठुमरी, लावनी, मल्हार, चैती आदि लोक छंदों को भी व्यवहार में लाए हैं।

 

भारतेन्दु जी कितने अलंकार का प्रयोग किया है 

भारतेंदु हरिश्चंद्र साहित्यिक परिचय अलंकारों का प्रयोग भारतेंदु जी के काव्य में सहज रूप से हुआ है। उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक और संदेह अलंकारों के प्रति भारतेंदु जी की अधिक रुचि है। शब्दालंकारों को भी स्थान मिला है। निम्न पंक्तियों में उत्प्रेक्षा और अनुप्रास अलंकार की योजना स्पष्ट दिखाई देती है:

  • तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाए।
  • झुके कूल सों जल परसन हित मनहु सुहाए।।

भारतेन्दु जी महत्त्वपूर्ण कार्य क्या है आइये जाने

भारतेंदु हरिश्चंद्र साहित्यिक परिचय आधुनिक हिन्दी साहित्य में भारतेन्दु जी का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। वे बहूमुखी प्रतिभा के स्वामी थे। कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास, निबंध आदि सभी क्षेत्रों में उनकी देन अपूर्व है। वे हिंदी में नव जागरण का संदेश लेकर अवतरित हुए। उन्होंने हिंदी के विकास में महत्वपूर्ण कार्य किया। भाव, भाषा और शैली में नवीनता तथा मौलिकता का समावेश करके उन्हें आधुनिक काल के अनुरूप बनाया। आधुनिक हिंदी के वे जन्मदाता माने जाते हैं। हिंदी के नाटकों का सूत्रपात भी उन्हीं के द्वारा हुआ।





भारतेंदु हरिश्चंद्र साहित्यिक परिचय भारतेन्दु अपने समय के साहित्यिक नेता थे। उनसे कितने ही प्रतिभाशाली लेखकों को जन्म मिला। मातृ-भाषा की सेवा में उन्होंने अपना जीवन ही नहीं सम्पूर्ण धन भी अर्पित कर दिया। हिंदी भाषा की उन्नति उनका मूलमंत्र था –

  • निज भाषा उन्नति लहै सब उन्नति को मूल।
  • बिन निज भाषा ज्ञान के मिटे न हिय को शूल।।
  • विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार।
  • सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार॥

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