धनुर्धर अर्जुन जीवन परिचय – हेलो दोस्तों में कोमल शर्मा आज के आर्टिकल में आप को महाभारत के अर्जुन के बारे में बताने जा रही हु |
धनुर्धर अर्जुन जीवन परिचय – अर्जुन महाभारत के मुख्य पात्र हैं। महाराज पाण्डु एवं रानी कुन्ती के वह तीसरे पुत्र और सबसे अच्छा तीरंदाज था। वो द्रोणाचार्य के शिष्य था। जीवन में अनेक अवसरों पर उन्होंने इसका प्रमाण दिया था की द्रौपदी को स्वयंवर में जीतने वाला वो ही थे। पांडु की ज्येष्ठ पत्नी वासुदेव कृष्ण की बुआ कुंती थी जिसने इन्द्र के संसर्ग से अर्जुन को जन्म दिया था। माता कुंती का एक पूरा नाम पृथा था, इसलिए अर्जुन ‘पार्थ’ भी कहलाए जाते है । अर्जुन बाएं हाथ से भी धनुष चलाने के कारण ‘सव्यसाची’
और उत्तरी प्रदेशों को जीतकर अतुल संपत्ति प्राप्त करने के कारण ‘धनंजय’ के नाम से भी प्रसिद्ध हो गए थे जब पाण्डु संतान उत्पन्न करने में असफल रहे तो कुन्ती ने उनको एक वरदान के बारे में याद दिलाया। कुन्ती को कुंआरेपन में महर्षि दुर्वासा ने एक वरदान दिया था जिसमें कुंती किसी भी देवता का आवाहन कर सकती थीं और उन देवताओं से संतान प्राप्त कर सकती थी। पाण्डु एवं कुन्ती ने इस वरदान का प्रयोग किया एवं धर्मराज, वायु एवं इन्द्र देवता का आवाहन किया था इस प्रकार अर्जुन इन्द्र के पुत्र थे।
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अर्जुन की शस्त्र शिक्षा
धनुर्धर अर्जुन जीवन परिचय – द्रोणाचार्य के ये प्रिय शिष्य थे। परशुराम से भी उन्होंने विद्या सीखी थी। हिमालय में तपस्या करते समय किरात वेशधारी शिव से इनका युद्ध हुआ था। शिव से इन्हें पाशुपत अस्त्र और अग्नि से आग्नेयास्त्र, गांडीव धनुष तथा अक्षय तुणीर प्राप्त हुआ था। वरुण ने इनको नंदिघोष नामक विशाल रथ प्रदान किया था। द्रोणाचार्य एक बार शिष्यों के साथ गंगा नहाने गये थे जैसे ही वे जल में उतरे चरण ही मगर ने उनकी टाँग पकड़ ली। द्रोणाचार्य ने अपने छात्रों की जाँच करने के लिए आवाज़ लगाई कि, “तुम लोग मुझे इस मगर से बचाओ।” अन्य छात्र तो घबराहट के मारे एक-दूसरे की ओर ताकते रह गये, किंतु अर्जुन ने पानी के भीतर डूबे हुए मगर को पाँच बाण मारकर मार डाला था और आचार्य की टाँग पर आँच तक न आने दी। इससे प्रसन्न हुए आचार्य ने अर्जुन को प्रयोग और उपसंहार सहित ब्रह्मशिर अस्त्र सिखला दिया थी
अर्जुन श्रीकृष्ण के सखा
धनुर्धर अर्जुन जीवन परिचय – साक्षात् श्रीहरि भक्तों पर कृपा करने के लिये, जगत् कल्याण के लिये और संसार में धर्म की स्थापना के लिये अलग अलग अवतार धारण करते हैं। नर-नारायण इन दो रूपों में बदरिकाश्रम में तप करते हैं, लोकमंगल के लिये श्रीकृष्णचन्द्र और अर्जुन के रूप में वे ही द्वापर के अन्त में पृथ्वी पर अवतीर्ण हुए थे अर्जुन पांडवों में मझले भाई थे अर्थात् युधिष्ठिर तथा भीम से छोटे थे और नकुल तथा सहदेव से बड़े। श्रीकृष्ण के समान ही उनका वर्ण नवजलधर-श्याम था। वे कमलनेत्र एवं अजानुबाहु थे। भगवान व्यास ने तथा भीष्म पितामह ने अनेक बार महाभारत में कहा है कि- “वीरता, स्फूर्ति, ओज, तेज, शस्त्र-संचालन की कुशलता और अस्त्र ज्ञान में अर्जुन के समान दूसरा कोई नहीं है।” सभी पांडव धर्मात्मा, उदार, विनयी, ब्राह्मणों के भक्त तथा भगवान को परम प्रिय थे। किंतु अर्जुन तो श्रीकृष्णचन्द्र से अभिन्न, उन श्यामसुन्दर के समवयस्क सखा और उनके प्राण ही थे। दृढ़ प्रतिज्ञा के लिये अर्जुन की बड़ी मानता थी
अर्जुन सच्चे धर्मपाल
पूर्वजन्म के कई शाप-वरदानों के कारण पांचाल राजकुमारी द्रौपदी का विवाह पांच पांडवों से हुआ था। संसार में कलह की मूल तीन ही वस्तुएं हैं- ‘स्त्री’, ‘धन’ और ‘पृथ्वी’। इन तीनों में भी स्त्री के लिये जितना रक्तपात हुआ है, उतना और किसी के लिये नहीं हुआ है। एक स्त्री के कारण भाईयों में परस्पर वैमनस्य न हो, इसलिये देवर्षि नारद की आज्ञा से पांडवों ने नियम बनाया कि ‘प्रत्येक भाई दो महिने बारह दिन के कर्म से द्रौपदी के पास रहना होगा यदि एक भाई एकान्त में द्रौपदी के पास हो और दूसरा वहां उसे देख ले तो वह बारह वर्ष का निर्वासन स्वीकार करे एक बार रात्रि के समय चोरों ने एक ब्राह्मण की गायें चुरा ली थी वह पुकारता हुआ राजमहल के पास आया। वह कह रहा था- “जो राजा प्रजा से उसकी आय का छठा भाग लेकर भी रक्षा नहीं करता, वह पापी है।”
अर्जुन ब्राह्मण को आश्वासन देकर शस्त्र लेने भीतर चले गये। जहां उनके धनुष आदि थे, वहां युधिष्ठिर द्रौपदी के साथ एकानत में स्थित थे। एक ओर ब्राह्मण के गोधन की रक्षा का प्रश्न था और दूसरी और निर्वासन का भय। अर्जुन ने निश्चय किया- “चाहे कुछ हो, मैं शरणागत की रक्षा से पीछे नहीं हटूंगा।” भीतर जाकर वे शस्त्र ले आये और लुटेरों का पीछा करके उन्हें दण्ड दे दिया था। गौएं छुड़ाकर ब्राह्मण को दे दिया अब वे धनंजय निर्वासन स्वीकार करने के लिये उद्यत हुए। युधिष्ठिर ने बहुत समझाया- “बड़े भाई के पास एकान्त में छोटे भाई का पहुंच जाना कोई बड़ा दोष नहीं है। द्रौपदी के साथ साधारण बातचीत ही हो रही थी। ब्राह्मण की गायें बचाना राजधर्म था अतः वह तो राजा का ही कार्य हुआ।” परन्तु अर्जुन इस सब प्रयत्नों से विचलित नहीं हुए थे। उन्होंने कहा- “महाराज ! मैंने आपसे ही सुना है कि धर्मपालन में बहानेबाजी नहीं करनी चाहिये। मैं सत्य को नहीं छोड़ूंगा। नियम बनाकर उसका पालन न करना तो असत्य है।” इस प्रकार बड़े भाई के वचनों से अर्जुन विचलित नहीं हुए। उन्होंने से स्वेच्छा से निर्वासन स्वीकार किया।
अर्जुन को अप्सरा उर्वशी का शाप
अपने निर्वासित जीवन में व्यास की आज्ञा से अर्जुन तपस्या करके दिव्य शस्त्र प्राप्त करने गये थे। अपने तप तथा पराक्रम से उन्होंने भगवान शंकर को प्रसन्न करके ‘पाशुपतास्त्र’ प्राप्त किया था। दूसरे लोकपालों ने भी प्रसन्न होकर अपने-अपने दिव्यास्त्र उन्हें दिये। इसी समय देवराज इन्द्र का सारथि मातलि रथ लेकर उन्हें बुलाने आया। उस पर बैठकर वे स्वर्ग गये और देवताओं के द्रोही असुरों को उन्होंने पराजित किया। वहीं चित्रसेन गन्धर्व से उन्होंने नृत्य-गान-वाद्य की कला सीखी थी एक दिन अर्जुन इन्द्र के साथ उनके सिंहासन पर बैठे थे। देवराज ने देखा कि पार्थ की दृष्टि देवसभा में नाचती हुई उर्वशी अप्सरा पर लगी है। इन्द्र ने समझा कि अर्जुन उस अप्सरा पर आसक्त हैं। पराक्रमी धनंजय को प्रसन्न करने के लिये उन्होंने एकान्त में चित्रसेन गन्धर्व के द्वारा उर्वशी को रात्रि में
अर्जुन के पास जाने का संदेश दिया। उर्वशी अर्जुन के भव्य रूप एवं महान् पराक्रम पर पहले से ही मोहित थी। इन्द्र का संदेश पाकर वह बहुत प्रसन्न हुई। उसी दिन चांदनी रात में वस्त्राभर से अपने को भलीभांति सजाकर वह अर्जुन के पास आई। अर्जुन ने उसका आदर से स्वागत किया। जो उर्वशी बड़े-बड़े तपस्वी-ऋषियों को खूब सरलता से विचलित करने में समर्थ हुई थी, भगवान नारायण की दी हुई जो स्वर्ग की सर्वश्रेष्ठ सुन्दरी थी, एकान्त में वह रात्रि के समय अर्जुन के पास गयी थी। उसने इन्द्र का संदेश कहकर अपनी वासना प्रकट की। अर्जुन के मन में इससे तनिक भी विकार नहीं आया। उन्होंने कहा- “माता ! आप हमारे पूरूवंश के पूर्वज महाराज पुरूरवा की पत्नी रही हैं। आपसे हमारा वंश चला है। भरतकुल की जननी समझकर ही देवसभा में आपको देख रहा था और मैंने मन-ही-मन आपको प्रणाम किया था। देवराज को समझने में कोई भूल हुई है तो में आपके पुत्र के समान हूं। मुझे क्षमा करें।”
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